रविवार, 20 फ़रवरी 2011

विश्व युद्ध क्रिकेट का......!

धो-डालो...रौंद डालो..... सफाया कर डालो......किल कर दो.......आउट कर दो......हिट करो.....पेल डालो....हालत पतली कर दो....दे दनादन ....ये शब्द कोई मुंबई या फिर अन्दर वर्ल्ड डोन के नहीं या भाई के नहीं बल्कि जेंटलमैन का खेल कहे जाने वाले खेल क्रिकेट के हैं...जो क्रिकेट का तथाकथित विश्व युद्ध चल रहा है, उसी में रोज यह सुनाई दे रहे हैं या देंगे......इस युद्ध के लिए ज़मीन दी शेरों के देश भारत, रिक्शे का देश बंगलादेश और रावण के देश श्रीलंका ने ...और लड़-कट-मरेंगे गोरे, काले-एसियन सब....! और जैसे-जैसे इस युद्ध का आगाज तेज़ी से होगा ये शब्द और ज्यादा तीखे होंगे...कुल मिलकर १४ देश अपने-अपने लंगोट कश कर क्रिकेट के सुनहरे रंग के वर्ल्ड कप को छीनने में लगे हुए हैं...इसी युद्ध में पहला युद्ध भारत और बंगलादेश के बीच हुआ...इस वर्ल्ड कप के पहले ही युद्ध में भारत ने बांग्लादेश को ठीक-ठाक तरीके से हराया....ठीक इसलिए क्यूंकि बंगलादेश भारत जैसी टीम नहीं थी....मतलब हमारे देश के लोग टक्कर की टीम नहीं मानते हैं....बंगलादेश के लोग और सट्टेबाजों को छोड़कर ! मगर सट्टा भयानक .....! मीडिया में खबरों के अनुसार हमारे रक्षा बजट से छह गुना ज्यादा लगा...तकरीबन छह सौ करोड़ रुपये..!

भारत ने पहले बैटिंग करके 370 रनों का विशाल स्कोर खड़ा किया जिसके जवाब में बांग्लादेश 283 रन ही बना सका। यह पहला मैच भी था क्रिकेट के विश्व कप का !सचिन तेंदुलकर भागते भागते बहार हो गए बैटिंग से.....बचे नजफगढ़ के नवाब साहब...गुस्से में रहते हैं हमेशा..गेंद और गेंदबाज़ दोनू के खिलाफ....बंगलादेश को खूब नचाया.....छक्का, चौका..एक दो तीन सारे तरीके के रन बनाये....१७५ रन पर वो भी बोल्ड हो गए....क्रैम्प होने के बाद...इंडिया और पाकिस्तान के देशों के साथ यह बहुत बड़ी समस्या है....साथ में थे गंभीर. जो हमेशा गेंद के खिलाफ इतने गंभीर हो जाते हैं की आउट हो जाते हैं.......उलटे -सीधे शॉट मारने से अच्छा है आउट हो जाऊं....मगर नवाब साहब का जवाब नहीं है......फिर आये विराट आगे की विरासत संभालने....सहवाग के साथ ....दोनूं एक ही स्कूल में प्रक्टिस करने वाले एक इलाके के रहने वाले.....जिसे विकास पूरी कहते हैं...सहवाग भी वही प्रक्टिस करने आते थे...और नजफगढ़ ज्यादा दूर भी नहीं विकास पुरी से....बस फिर क्या विराट की विरासत ने कमाल कर दिखाया....सैकड़ा ठोक डाला...बंगलादेश बगलें झाकने लगा....ऐसा लगा जैसे स्कूल की टीम के साथ इंडिया की टीम शरारत कर रही है...

कुल मिलाकर पहला युद्ध जीत लिया गया....धौनी और कंपनी ने अच्छा खेल खेला...बधाई, और आगे के लिए शुभकामना भी !

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

चेरी का बगीचा.....



अवकास होने के कारण आज ' चेरी का बगीचा ' अन्टानी चेकोव का लिखा हुआ नाटक देखने जा रहा हूँ.....एन एस डी ,मंडी हाउस, देखते हैं कैसी प्रस्तुतीकरण होती है.......

कुल मिला कर गया....और जो प्रस्तुती थी , शब्दों में बयां नहीं कर सकता..सुन्दर जैसे रूस का एक परिवार और वहां की झलक पुरी तरह देखने को मिल रही थी....वाद संवाद सुन्दर थे...स्पष्ट थे.....अभिनय की दृष्टि से देखा जाये तो उत्तम कहूँगा...और काफी समय बाद उस प्रागण में जाना अपना जैसा लगा......अकेले था इसलिए और भी अच्छा लगा समझने में और देखने में.....!

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

दिल्ली की ब्लू लाइन......बाई बाई ....!


दिल्ली बस अड्डा..बस अड्डा बस अड्डा....रेलवे स्टेशन..कनाट प्लेस..., धुला कुवां, आनंद विहार.....आ जाओ आ जाओ... बस अड्डा....जाएगी...ये जाएगी....ये आवाज उस ब्यक्ति की है जो बस के कोने को पीट पीट कर चिल्ला चिल्ला कर अपनी सवारी बैठाता है ....शायद वह आवाज और दरवाजे के कोने को पीटना अब जल्द ही बंद हो जायेगा...दिल्ली की सड़कों से..31जनवरी को कोर्ट ने कुछ राहत तो दी है लेकिन सरकार की मंशा है इनको पूरी तरह से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाये...और सायद कुछ दिनों में सारी बसें जो दिल्ली में लाखों लोगों को ढोती थी..वो एक इतिहास बन चुकी होंगी... .जो हज़ारों परिवार इनके सहारे अपना पेट पाल रहे थे...जिसका कमाई का जरिया था वो अब बंद हो चुका है.....वे जहन्नुम में जाएँ....सरकार को इसकी परवाह नहीं है....कौन पूछे सरकार से की ये चलाई क्योँ थी...पहले ये अच्छी लग रही थी सरकार को ....अब बुरी क्योँ हो गई...बजाये सुधार लाने के एक दम हटा दी गई...क्यूंकि जिन नेता, अधिकारी ने अपनी तिजोरी भरनी थी वो भर डाली..अब कोई दूसरी रंग की बस लाइन लायी जाएगी..... लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए बस का रंग बदल डाला लेकिन रूप-स्वरुप नहीं !
एक नजर अगर डालें तो दिल्ली में निजी बस सेवा के बारे में तो..यही कहना उचित होगा...जैसे दिल्ली उजड़ी...वैसे-वैसे निजी बस सेवा भी उजडती चली गई....जब में दिल्ली में आया उस समय डीटीसी की बसें चला करती थी...कुछ जगह पर डबल डेकर भी थी...जैसे करोल बाग़..शादी पुर डिप्पो इत्यादि...उसके बाद ..लाल लाइन आई जिसे रेड लाइन का नाम दिया गया...फिर सफ़ेद लाइन..जिसे व्हाईट लाइन कहा गया...फिर येल्लो लाइन...फिर अंडर डीटीसी जिसमे कंडक्टर सरकारी और ड्राइवर निजी हुआ करता था....और अब नीली लाइन जिसे ब्लू लाइन का नाम दिया गया....इनके रंग बदले लेकिन मिजाज नहीं ..फिर चाहे वो सरकार का हो या फिर निजी बस वालों का.....अंत में लो फ्लोर क्या आई की सरकार को इन बसों से रुसवाई हो गई...और बिना सोचे समझे इनको नमस्ते बोल दिया गया.....इनके मालिक चिल्लाते रहे कोर्ट भी गए लेकिन कुछ नहीं हुआ..और ना होने वाला....{लगता ऐसा ही है} जो कंडक्टर चिल्ला-चिल्ला बुलाता था वो आज घर के चार दीवारी में चुप बैठा है सर पकड़ कर....जो ड्राइवर दिल्ली की सड़कों पर अपने आप को राजा समझता था वो आज अपने परिवार की रोजी रोटी की जुगत में रात दिन फिर रहा है.....जो हेल्पर टांका मार कर गुजारा करता था वो आज अपनी हेल्प नहीं कर पा रहा है....ऐसी सरकार किस काम की ? जो लोगों के पेट पर लात मारती हो .....लोगों की रोजी रोटी छीन ली जिसने ? खूब ड्राइवर बने खूब कंडक्टर बने.....मगर एक अच्छी बस नहीं बना पाए जो दिल्ली को पसंद आ सके..कई लोगों ने अपने खोये इसी बस के नीचे...आंखिर में नाम ब्लू लाइन से किलर लाइन रख डाला...इसमें कंडक्टर- ड्राइवर-हेल्पर लोगों को खुले आम गाली गिफ्ट में देते थे लेकिन फिर भी लोग उसी में बैठते थे....कोलेज वाले भिड़ते थे स्टाफ है.....पुलिस वाले रोब जमाते थे स्टाफ है...डीटीसी वालों की तो यह नाजायज औलाद की तरह थे....फिर भी ये डीटीसी वालों की पिटाई कर देते थे...सवारी लेने के चक्कर में...!

लो फ्लोर बस महँगी बस है.....दिखती भी सुन्दर है...कुर्सियां भी गजब है..अपने आप दरवाजे भी खुलते हैं...ड्राइवर को भी आराम मिल गया है...जनता के लिए भी आराम दायक है...सकूं मिलता है बैठने में....फिर चाहे वातानुकूलित हो या फिर पर्दूषित......लो फ्लोर तो है....न? इसके एक दरवाजे में लिखा होता है आपकी अपनी बस है इसे साफ़ और स्वच्छ रखिये....लेकिन सबसे ज्यादा गंद तो बस का कंडक्टर ही फैलाता है, टिकेट पंच कर कर वो जितना गंद फैलाता है पूरी बस में उतना कोई एक किलो मुन्ग्फुली खा के भी नहीं करता....सरकार को इस पर ध्यान नहीं जाता है.....क्योँ न वो हरयाणा रोडवेज और राजस्थान रोडवेज की तरह पिन पंच करता है....? कौन समझाए अच्छे काम के लिए सरकार सरक-सरक कर काम करती है.....अब तो बटन से काम होता है.....रुक जाओ थोड़े दिन कंडक्टर की नौकरी भी खायेंगे ये...टोकन सिस्टम जल लागू होने वाला है.....फिर क्या करेंगे?

कुल मिलाकर जनता के लिए अच्छी बात है सुबिधा बड़ी है लेकिन अच्छी तरह से प्रबंध का ना हो पाना राजधानी के लिए अभिशाप बन बैठा है. ..और उसका खामयाजा जनता को भुगतना पड़ता है.....लोग एडजस्ट करने में ही लगे रहते हैं...जो दिल्ली की जनता का तकिया कलाम है अगर वह सीट में बैठ जाता है तो....उसे दुसरे को एडजस्ट ही करना पड़ता है...फिर चाहे वो महिला वाली चार सीट्स हो या फिर बिक्लांग वाली इकलौती कुर्सी.....फिर चाहे वो बोनट हो या फिर ड्राइवर के पीछे वाली सीट..या फिर लडकी/महिला को बैठाने में आगे रहने वाली कंडक्टर सीट......गौर करने वाली एक बात और है...अगर महिला कंडक्टर की दोस्त है तो वह अपनी सीट दे देगा और ड्रावर की है तो बोनट में बैठायेगा..फिर उसके लिए वो चालन क्योँ न दे बैठे...? चलेगा...! एडजस्ट करते करते करते लो फ़लूर तक आ पहुचे हैं....देखते हैं इसका रूप और रंग कब बदलता है और गौर करने वाली बात खासकर यह होगी राजधानी दिल्ली के लोग कब तक पसंद करते हैं.....और वह ढोल की तरह बस को पीट पीट कर लोगों को बुलाना सायद अब इतिहास बन जाए......!

[कोशिश करूँगा निजी बस सेवा पर कुछ सिरीज़ लिखने की और आप के साथ शेयर करूँ ...]

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