बुधवार, 28 अप्रैल 2010

गवायिंत का अंदाज

दिन रविवार और जगह बाहिरी दिल्ली का एक सुन्दर गाँव ! रविवार के दिन मेरा वीकली ऑफ था, सुबह में घर से निकला सीधे हमारे बरिष्ठ साथी और पत्रकार भारद्वाज जी के ऑफिस में गया.....कुछ देर बैठने के बाद वो आये और हम दोनूं एक पास ही एक गाँव की ओर चल दिए....मैंने भी सोचा चलो देख आते हैं क्या नज़ारा है वहां का? काफी समय हो गया है उस इलाके में गए हुए.... भारद्वाज जी ने बताया मुझे की किसी का कारज है....उसमे जाना है.....कारज किसी की मौत के बाद उसकी याद में कार्यक्रम किया जाता है...और गाँव और रिश्तेदारों को भोजन किया जाता है....पंडित तो होंगे ही.....खैर....पहुचे वहां तो अजीब-अजीब बातें हुई जिन्हें मैने सोचा कि आपके साथ शेयर करूँ....

गावं में पहुचे तो देख कर सामने दांग रह गए....'व्हाईट हाउस'...तक़रीबन एक हज़ार गज जमीन में बना हुआ तीन मंजिला व्हाईट हाउस...क्या डिजाइन था....उसकी एक बालकोनी कुछ महिलाएं कड़ी थी और गुफ्तुअगु में मशगूल थी....हमने गाडी बहार सड़क किनारे कड़ी की और गेट के अन्दर घुसे तो देखा सामने बड़ा टेंट लगा हुआ है और कुछ लोग नीचे बैठकर खाना खा रहे हैं, दाई और प्लाट के कुछ बुजुर्ग लोग मुढे में बैठे हैं और हाथ में शरबत के गिलास के साथ गर्मी को दूर कर रहे हैं. भरद्वाज जी सीठे वही गए,एक दो गाँव वालों को राम राम कह कर...ये क्या ? जब हमने देखा वहां बैठे बुजुर्ग शरबत नहीं बल्कि अंग्रेजी शरबत पी रहे थे. मुढे के साथ में अंग्रेजी शराब की बोतल रखी हुई थी और हाथ में प्लास्टिक के ग्लास में शरबत....जिससे किसी को बोतल भी नहीं दिखे और लोग समझेंगे कि शराब नहीं बल्कि शर्बात पी रहे हैं...हमारे जानकार एक अंकल भी उनमे से...हमें देख कर तुरंत खड़े हो गए और स्वागत किया....कहते हैं ना कि गाँव के बुजुर्ग बढे सयाने [समजदार] होते हैं वही हुआ....सभी ने शरबत कि ग्लास नीचे रख दी...एक ग्लास मुझे भी दे..मैंने भी शरबत समझ कर पी लिया, शुक्र है शराब मिक्स नहीं थी उसमे....खैर आगे गए भरद्वाज जी बोले चलो भोजन कर लिया जाये...भारद्वाज जी बोले कहाँ बैठें मैंने कहा कि नीचे बैठते हैं और खा लेते हैं, लेकिन अंकल ने कहा कुर्सी आ रही है उसमे बैठ के खायेंगे...उन्हूने आवाज दी अरे सुनिओ भाई कुर्सी लाना...दो कुर्सी आ गई, दोनू में भरद्वाज जी और में बैठ गए....एक और मंगाई गई खाना रखने के लिए जो डाइनिंग टेबल का काम कर सके....फिर एक और मंगाई जो अंकल को बैठा सके....कुल मिला कर कुसियाँ लाने और बैठने का दौर चलते रहा और हमें आंखिर कार कुर्सी मिल भी गई.

अंकल ने आवाज दी पूरी लाइओ भाई ! गरम गरम लाना ! एक आदमी भागा आया और एक टोकरी में पूरी ले आया...बोला 'ताऊ' ताती हैं, गरम नहीं हैं.......उफ्फ्फ ताती और गरम तो एक ही होते हैं...लेकिन वो आदमी सच्चा था डबल न समझ कर सिंगल दिमाग लगाने वाला...इसलिए उसने जो था वो बोल दिया...शहरी सब्द गरम को नहीं अपना पाया और न ही बोला....खैर ! अच्छा लगा ये सुन कर...अभी लोग दिल्ली जैसे बड़े शहर में लोग कितने सीमित विचार धारा के हैं. उनके लिए सरकार के विकास और तरकी के मायने ज्यादा नहीं हैं. ...एक प्लेट में उसने 7-8 पूरी रख दी, ताती ताती ...और फिर सीता फल कि सब्जी पूरी प्लेट भरकर...और बोरिंग आलू कि भी...इससे पहले 4 लड्डू रखे एक हट्टे कट्टे युवक ने, कहा ताऊ लाड्डो खा ले....लाड्डो भी बड़े बड़े थे..मैंने भी 2 खा दिए....देखि जाएगी.....[हरियाणा में कारज में खाने से पहले मीठा दिया जाता है और लाड्डो का प्रचलन खूब है] ..1 भरद्वाज जी ने और अंकल ने नहीं खाए...वो विदेशी सरबत में ब्यस्त में थे.....मीठा और रंगीला कर देता उनको...समझदार थे...मुझे बताया गया कि सीताफल कि सब्जी स्वादिस्ट है..खासकर तौर पर बनाने वाले को बुलाया गया है...चखी तो सच में स्वादिस्ट थी...खाना खाया हमने सब सब्जी और पूरी सहीद कर डाली पेट के अन्दर...तीनों ने..! अब पानी कहाँ मिलेगा..देखा तो आस पास कुछ नहीं ...बहार गए गेट के तो देहा सामने 3-4 ड्रम रखे हुए हैं प्लास्टिक के...और कुछ बच्चे पानी निकालने में लगे हुए हैं...वो भी प्लास्टिक कि बोतल काट कर बनाए गए बर्तन से....वाह क्या आईडिया था....

बारी थी अब उनसे मिल लिया जाए..जिन्हूने ये 'कारज' पार्टी रखी है....जी हाँ उन्हूने मुझे भी पहचान लिया...राम राम हुई दोनू तरफ से....पता लगा इन जनाब ने अपने पिता जी का जिन्दा जी कारज कर डाला....लो कर लो क्या करोगे अब ! जी हाँ जिन्दा जी...श्राद सुना है लकिन कारज .....ऊपर से मूर्ति और बनवा दी उसे प्लाट के एक कोने में....वाह...पता लगा कि 14000 पत्तल जो समां चुके हैं लोगों के पेट में बाकी और आयें, ये कोई गारंटी नहीं है.....सुनने में आई कि कोई जमीन में हाथ मार लिया....कुल मिलाकर पौ बारह ! जनाब करते क्या हैं ? लोगों को यात्रा पत्र देते हैं....बोले तो डीटीसी में कंडक्टर हैं....जी हाँ......गजब के इंसान ! पेशे से कंडक्टर.....और पार्ट टाइम प्रोपर्टी डीलर वो भी सरकारी/गैर सरकारी जमीन के....जो कहीं न बेच पाए वो ये बेच खायेंगे...और कोठी सफ़ेद रंग कि, इटालियन मार्बल से जड़ी हुई ....गाँव का ताज महल कहें तो बुरा नहीं... जो लोग देखते रह जाए.....कुल मिलाकर गवायंत कि बात ही कुछ और है...लोग गाँव में रह कर भी धन दौलत के साथ तरक्की करने में लगे हुए हैं....कुल मिलाकर गाँव का दौरा अच्छा रहा और काफी कुछ सीखने को मिला..अच्छा लगा सब कुछ देख कर.. ...

रविवार, 25 अप्रैल 2010

वी मिस ह़र........

किसी ने सच कहा है जिंदगी का पता नहीं? कब कहाँ शाम हो जाये? और किस घडी में? किस हालात में?लेकिन जिसे पता है जिंदगी का, उसे इंसान नहीं महात्मा [महान+आत्मा] कहा जाता है...और जो इस सच को गले लगा गया वो उसका अपना फैसला होता है !दुःख इस बात का और बढ़ जाता है, जब कोई अपना अजीज इस सच हो गले लगा लेता है ......और उस परिवार के लिए यह बहुत बड़ी त्रासदी होती है !

दिन शुक्रवार, समय सुबह 10 बजे के आस-पास, हर दिन की तरह घर पर सो रहा था, रात को देर से घर पहुचने के कारण सुबह उठने में देरी हो ही जाती है... मीडिया/प्रेस वालों की जिंदगी ख़बरों तक ही सीमित रह जाती है थोडा बहुत जो समय मिलता है उसमे आराम भी जरुरी है ..ये मेरी कमजोरी है कि मुझे आठ घंटे की नींद पूरी चाहिए. ...तक़रीबन दस बजे सुबह मेरे चचेरे भाई का फोन आया...भाई कहाँ हो? मैंने कहा हाँ बोल घर पर! ऑफिस जाऊँगा थोड़ी देर में, उठा नहीं था में,सोये हुए उसके फ़ोन का जवाब दे रहा था....भरे गले से आधी नींद में आँखें खुली भी नहीं थी मेरी, ....वो बोला भाई [] ने सुसाइड कर लिया है ! मेरी समझ में कुछ नहीं आया पहले, एक मिनट के लिए कुछ समझ नहीं आया क्या बोलूं न दिमाग करना काम किया...उसने फिर पूछा भाई क्या करूँ? फिर थोड़ी आँखें खुली और समझा आया तो देर हो चुकी थी.....वो बोल चूका था और में समझ चुका था......मैंने कहा की पुलिस को कॉल कर, बांकी बात में कर लूँगा, कोइस समस्या नहीं होगी...अमूमन पुलिस वाले परेशान करते हैं..शव को पीएम के लिए भेजना, फिर तरह तरह से सवाल जवाब....लेकिन कुछ संदिग्ध नहीं था इसलिए जल्द ही उन्हूने किलियर का दिया...पुलिस वाले भी अच्छे इंसान थे...सभ्य और सुशील !कुछ मीडिया का दवाब मान कर जल्द ही उन्हूने शव को परिवार के हवाले कर दिया.... शव घर के अन्दर चैन की नींद में सो रहा था ! वो कोई और नहीं बल्कि मेरी चचेरी बहन का था....सब उसे प्यार करते थे, सुन्दर थी, बहादुर थी,बुद्धिमता में किसी से कम नहीं थी और जिंदगी में कुछ कर सकने कि जद्धोजहद में जिंदगी से जूझ रही थी.....घर में बचपन से चंचल स्वभाव की थी....सबकी प्यारी लाडली बच्ची थी....भाई विदेश में है और कुछ दिन पहले ही उसके लिए उसने कुछ रुपये भिजवाये थे, ताकि उसकी आगे कि पढ़ाई और अच्छी तरह और पूरी हो और उसकी बहन अच्छी तरह से पढ़ सके. बड़ी बहन के लिए भी पैसे भिजवाये थे . पिता जी कोमल ह्रदय के और साफ़ इंसान हैं, सामाजिक रूप से लोगों कि भलाई करने वाले और हमेसा सच बोलने वाले .मेहनत में यकीन रखने वाले और अच्छे पद पर बिराजमान हैं ,लेकिन इस हादसे ने उन्हें काफी दुःख पंहुचा है, सायद उसकी कल्पना कर पाना संभव नहीं है...... मां एक अच्छे परिवार से तालुक रखने वाली गृहणी हैं, और हमेसा प्यार से बोलने वाली और सोफ्ट स्वभाव वाली महिला रही हैं जो अपने परिवार को हर संभव, हर चीज़ देने की कोशिश में रहती हैं, और दिया भी है आज तक उन्हूने.,,, छोटा भाई जितनी प्यारी वो थी उतना ही प्यारा है. बड़ी बहन भी एक बड़ी दीदी कि तरह हमेसा ना डाटने वाली और न झगडा करने वाली और चोटों कि मांग पूरी करने वाली है, और बहुत प्यारी बच्ची है.....उसकी अन्खून में आज आँसों थे.....अपनी प्यारी बहन जो खो चुकी है....पिता परेशान थे क्या गलत हुआ उनसे जो उनकी बच्ची ने ऐसा किया....मां बिलख बिलख रो पड़ रही थी....और अपने आप को नहीं संभाला जा रहा था उससे......कलेजे का टुकड़ा जो चला गया....में भी तुरंत पहुंचा....पंहुचा तो देखा ये सब मंजर !कुछ शब्द नहीं थे मेरे पास ! छोटी सी थी,जब वह हमारे घर आई थी और कुछ दिन रही थी.....उसकी चुलबुलाहट,और उलझी-सीधी बातें आज तक याद है......प्यारी बहन की तरह कोई बात होती तो पूछ लेती थी मुझे ..कहती ! भाई ये क्या है? कैसे होता है?.....तरह तरह...लेकिन कभी-कभी जिरह, तर्क-वितर्क भी कर बैठती थी......आज वो हामारी बीच नहीं है......उसका अंतिम बार देखा मासूम चेहरा जिस पर न कोई सिकन थी न ही कोई दर्द.....

मगर एक प्रश्न हमेसा दिल में खौलता रहा की ऐसा क्योँ किया उसने ?...सब कुछ होते भी ऐसा कर डाला....क्योँ ? इतना अच्छा घर, लोग,हालात सब कुछ तो ठीक था.....किसी के पास कोई जवाब नहीं ?कुछ न होते हुए भी सब कुछ कर दिया एक मिनट में......मेरी और से प्यारी श्रधान्जली और दुआ है कि उसकी आत्मा को असीम शान्ति मिले......उस बच्चे को में हमेसा मिस करूँगा............

रविवार, 18 अप्रैल 2010

शशि थरूर, सुनंदा और आईपीएल !


विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर जितने प्रसिद्ध कुछ समय पहले अंतररास्ट्रीय स्तर पर थे....आज उतनी ही बात उनके बारे में विवाद के तौर पर उभर कर सामने आई है.....कभी उल्टे -सीधे बयान दे कर मनमोहन सिंह की सरकार के नाक में दम करने वाले थरूर आज फिर से मुशीबत में हैं. लेकिन समय और विषय बदल गया है. सरकार उनके बयान बाज़ी को सहन कर गई. लेकिन लगता है अब बर्दास्त करने के मूड में नहीं है.थरूर का 'जिन्दा जिन्न' ने प्रधान मंत्री का पीछा ओबामा से मुलाक़ात करते समय भी नहीं छोड़ा. आंखिर पीएम को बयान जरी करना पड़ा अमेरिका से कि वापस देश में आकर जो भी उचित होगा.इस बात पर कार्यवाही की जाएगी.... और उसी का नतीजा है आज पीएम और सोनिया गाँधी की बैठक तो है ही साथ में कैबिनेट की कोर कमिटी की बैठक भी हो सकती है. ..और हो सकता है यह मुद्दा भी वहां पर जिन्न की तरह पीछा न छोड़े? ऐसे में कहीं थरूर इस्तीफा न पटक मारे?


लेकिन ललित मोदी का चहचहाना थरूर और सुनंदा पुष्कर के सपनों को डंक मार गया ! बिपक्ष खास कर बीजेपी ४४ डिग्री तापमान में जली- भुनी पड़ी है,और पसीने-पसीने हो कर सरकार पर हमले पर हमले किये जा रही है....साथ में अन्य दल भी कभी-कभी पत्थर सरकार पर मार देते हैं. ....वो भी सिर्फ अपनी ड्यूटी पूरा करने के लिए ! खैर सब कुछ हुआ अब देखना यह है कि ललित मोदी, सुनंदा पुष्कर और शशि थरूर का आगे क्या होगा? क्या थरूर को कुर्सी छोडनी पड़ेगी? क्या ललित मोदी कि टेंसन कम हो पायेगी?क्या सुनंदा पुष्कर मीडिया से पीछे छुड़ा पाएगी ?सवाल कई हैं लेकिन जवाब जरुरी है, जब आग लग ही गई है तो पता लगना चाहिए कि किसने, कहाँ और क्योँ लगाईं?

संयुक्त राष्ट्र महासचिव का चुनाव से लेकर भारत में चुनाव और विदेश राज्यमंत्री का पद लेने तक उनके लिए सब कुछ बढ़िया रहा, उनके कई विवादस्पद बयान सरकार झेल गयी। बेशक वे पढ़े लिखे हैं आकर्षक हैं....लेकिन सुनंदा पुष्कर नाम की महिला का नाम जुड़ना और वो भी आईपीएल जैसे क्रिकेट को आधार बनाकर जुड़ना...भूचाल तो सरकार और मीडिया में आना स्वाभाविक है. कहावत है जर, जोरू और ज़मीन..झगडे कीजड़ रहे हैं, यहाँ पर क्रिकेट और जोड़ लो....लेकिन मेरा मानना है पब्लिक फिगर बनने के बाद थोडा पर्दा रहे तो अच्छी बात है. ऐसे में कुर्सी भी नहीं छिनेगी, पैसा भी कम लिया जायेगा और यारी दोस्ती भी सलामत रहेगी.

मगर नाम जिस तरीके से जुड़ा उस पर जरुर सवालिया निशाँ खड़े होते हैं. ...आप शादी एक दो नहीं कई करें कोई नहीं पूछेगा...किसी कोई हक़ भी नहीं है किसी की निजी जिंदगी में झाँकने का .....और होना भी नहीं चाहिए. लेकिन यहाँ पर कई तरह के 'लिंक' उग आये हैं....जैसे जम्मू & कश्मीर में रेसेप्स्निस्ट की नौकरी फिर दुबई में रही वहीं बिज़नेस किया,स्पा की मालकिन, दुबई लिंक...फिर मंत्री के साथ लिंक....और फिर सवालिए निशाँ उठे आईपीएल में एंट्री..वो भी फ्री इक्विटी /हिस्सा के मार्फ़त. ...और अगर सलाहकार भी थी तो किस बात की?और देश का दुर्भाग्य ही है वे लोग खेल के मालिक हो गए जो कभी क्रिकेट खेलते तक नहीं ...खुल्लम खुल्ला पैसा कमाओ....भाड़ में जाये खेल, देश और दुनिया... जिसने कभी क्रिकेट के मामले में कोई योगदान नहीं दिया हो....उसको सलाहकार बना दिया......खैर अंत में नौबत यहाँ तक आ गई की प्रधान मंत्री को सोनिया गाँधी से मिलना पद रहा है और सायद आज फैसला आ भी जाए? लेकिन दूसरी तरह ये भी है अगर सरकार अभी उन्हें त्यागपत्र के लिए कहती है तो विपक्ष सोचेगा कि ये उसकी जीत है. सरकार झुक गई....ऐसे में कुछ समय और मिल भी सकता है ...लेकिन खबर एक दम से आई कि सुनंदा पुष्कर ने अपनी हिस्सेदारी से हाथ कींच लिए हैं या उनके अनुसार छोड़ दी है......लेकिन ये तो आने वाला वक्त बतायेगा. ...ठीक मीटिंग से पहले ऐसा करना दिमाग का खेल लग रहा है. ..

ललित मोदी,सुनंदा पुष्कर और शशि थरूर अब कुछ दिन और चलेगा मीडिया में .....मगर एक बात तय है अगर आईपीएल खेल में किसी का पैंसा लगा है या गलत लोगों का और कहाँ से लगा है? कौन हैं वो? कौन इस खेल को खिला रहे हैं? कौन लोग इसके पीछे हैं......यह जनता को जानने का हक़ भी है........बाकी मिस्टर थरूर बेस्ट ऑफ़ लक !

मैं, मेरी मछली और चोर बाज़ार.......



चोर बाज़ार ! जी हाँ चोर बाज़ार.......दिल्ली का प्रशिद्ध बाज़ार, जहा कहते थे कि आदमी भी बिक जाता था ! सामान तो दूर कि बात है....ऐसा नाम जिसको सुन कर एक बार इंसान जरुर सोचता है, जाऊं या न जाऊं ?जाना चाहिए या नहीं जाना चाहिए?देखना चाहिए या नहीं देखना चाहिए? वहां से सामान खरीदा जाये या नहीं ? ऐसे कई सवाल हैं जिनको इंसान अपने दिमाग में रख कर जद्दोजहद करता रहता है, लेकिन हर इंसान के जहन में यह ख्याल जरुरी आता है कि चलो एक बार देख लिया जाये.....

में भी जब दिल्ली विश्विद्यालय में पढता था उस समय मुझे भी जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ! मेरे घर के सामने से सीधे पुरानी दिल्ली की बस जाया करती थी और बैठ गया उसमे. ...दिन इतवार था. चोर बाज़ार इतवार के दिन ही लगा करता था और अब भी लगता है, लेकिन अब स्वरुप बदल गया है जगह बदल गई है....पहले लाल किला के पीछे लगा करता था मिटटी में जहाँ पर अब हरा भरा पार्क बन गया है और अब लाल किले के सामने डामर रोड के किनारे लगा करता है..लेकिन पहले जैसा भरा और भरपूर नहीं लगता है.

में जब पहली बार गया तो देखा बस लाल किला तो पहुच गई और कंडक्टर चोर बाज़ार लाल किला वाले उतर जाओ चिल्लाने लगा...जैसे उसके सर से बोझ उतर गया है....लेकिन ये क्या ? बाहर देखा तो रोड में ३-4 लड़के बाग़ रहे हैं...फुल स्पीड में ! में दर सा गया फिर देखा डरने वाली बात क्या है मैंने कौन सा गुनाह कर दिया...दिल में दर भी था चोर बाज़ार जा रहा होऊ...कई तरह की कहानी सुन राखी थी...फिर देखा मैंने उन लड़कों के हाथ में लोकल, इम्पोर्टिड जैसे लगने वाले जूते -चप्पल थे. पुलिस वाले या फिर एमसीडी वाले उनको जहाँ तहां बेचने की परमिसन नहीं होगी..इसलिए वे जब भी दौरे पर आते हैं ये लोग सामान और अपने आप को बचाने की जुगत में भाग खड़े होते....थोडा आगे गया तो नीबू पानी और जलजीरा वाला खड़ा था....सब पी रहे थे मुझे भी प्यास लगी थी 2 गिलास गटक गया...रूपया अठन्नी ली, चवन्नी की एक गिलास ! मस्त था पानी...साड़ी घर से लाल किला तक पहुचने में जो थकान लगी और जो पांच रुपये दिए किराए सब वसूल हो गए...थोडा आगे गए तो दो तीन भिखारी दिखे एक बुढिया जिसके हाथ नहीं थे....सोचा ऐसे लोग क्योँ हो जाते हैं, लेकिन सायद वे भिखारी उसी हालात में अपने आप को ढाल लेते हैं और खुस रहते हैं...दूसरा लकड़ी की तख़्त से बना फट्टा और नीचे लोहे की बैरिंग पर बैठा हुआ है और एक औरत उसको धकेल रही है....कम वही भीख ! लेकिन मैंने नहीं दी उन्हें, क्योँ कि मुझे भिखारी नहीं लगे !लेकिन उनके कटोरे को देख कर लगा ठीक थक कम लेते हैं वो लोग! फिर आगे थोडा आगे गया तो एक बोतल में मछली बेच रहा था....बोतल 1 रुपये से लेकर 1000 तक कि थी....मुझे अछी लगी एक बोतल ली मैंने 10 रुपये कि और 4 मछली उसके अन्दर थी...

अन्दर घुसा तो देखा रंगीन टीवी जो 20000 का है और केवल 1500-2000 रुपये के बीच में लोग ले जा रहे थे...क्या था क्या नहीं .लेकिन टीवी दिख रहा था...लेकिन गारंटी कोई नहीं, कोई पर्ची नहीं सिर्फ चला कर दिखा देंगे...और ले जाओ !वाह क्या बात है...कपडे 5 रुपये से लेकर 500 रुपये तक बाकी मन मर्जी है, जितने में मना सको दूकान वाले को . सब जमीन पर बैठे हुए हैं. कालीन हज़ारों रुपये क़ी लेकिन इतने पैसे नहीं थे.......और कोई इरादा भी नहीं था...डम्बल बॉडी बनाने के लिए वाह ! गजब के थे...पौंड के हिसाब से मिल रहे थे..कुल मिलाकर 1-2 घंटे घूम कर देखा तो सब कुछ उपलब्ध था....रेट जितना लड़-झकड़ तय कर सको...एक और चीज़ देखि जो जानकारी के लिए अछा था....सामने ऑटो में पोलिस वाले कुछ चेक कर रहे थे.....पता लगा वो सामान चेक कर रहे हैं...सामान को, और अब ग्राहक फस गया कोई पर्ची नहीं कोई कोई रिकॉर्ड नहीं अब वो क्या जवाब दे.....कुछ सामन चोरी का भी होता था....इसलिए जो ले जा पाया अच्छी बात है जो नहीं ले जा पाया लड़ते रहो....लेकिन अब ऐसा नहीं है....
दूसरा जो सबसे अच्छी चीज़ लगी चिड़िया बिक रही थी...दुःख भी हो रहा था पिंजरे में देख कर.....आज़ाद पंछी आज़ाद न रहा! इन्दगी में पहली बार देखा कि प्रकृति का हवा का खिलौना 'चिड़िया' भी बिकती है...कबूतर....बटेर...गोरैया, तोता और पता नहीं कितनी रंग विरंगी...लोग खरीद रहे थे में देखा जा रहा था...मज़ा आ रहा था....मुझे शौक भी नहीं था ...मगर मेरे हाथ में मछली थी....बोतल के अन्दर...में भी घूम रहा था, मछली को भी चोर बाज़ार घुमा रहा था...कभी एक हाथ से पकड़ता कभी दोनू हाथों से बोतल को ...मछली कभी ऊपर कभी नीचे तैरती रहती..लाल , हरी , पीली मछली थी....ख़ुशी थी कुछ तो खरीदा मैंने...चोर बाज़ार से, पोलिस वाले ने भी नहीं पूछा?सब ठीक-ठाक !अब लगने लगी भूख क्या खाऊं? वहां के हालात देख कर खाने का मन नहीं कर रहा था, लोगों को देखू तो भूख लग रही थी....और फिर मेरे साथ मेरी मछली भी तो थी....वो भी भूखी बेचारी तैर रही थी. बाज़ार से बहार निकल आया तो देखा एक नीम के पेड़ के नीचे एक केले वाला खड़ा है, केले जमीन पर थे लेकिन थे ठीक थक...सोचा यही मंजिल है....6 केले लिए और पेट के अन्दर शहीद कर दिए...लेकिन कहते हैं न भूख बहुत खराब चीज़ होती है...में फिर से अपनी मछली को कुछ नहीं खिला पाया....पेट भर गया मेरा...लेकिन मेरी मछली फिर भी भूखी रही...पूछ भी नहीं पाया किसी से ....खौफ था दिल में...कहीं कोई पुलिस वाला पूछ न ले ?चोर बाज़ार से आ रहा था ना ?4-5 चक्कर लगाने के बाद, किताब बाज़ार देखने के बाद घर जाने का वक्त आया...और में बस के बारे में पुचा कहा मिलेगी पता लगा वहीं पर आती है...एक और गोलचा सिनेमा हाल भी देखा...पहली बार...दिल्ली का प्रशिद्ध सिनेमा हॉल हुआ करता था, और इसे अवार्ड भी मिला सबसे ज्यादा समय तक फिल्म चलाने का, सायद मुगले-ए-आज़म थी !कभी....खैर बस आई बैठा और पांच रुपये दिए यात्रा पत्र लिया कंडक्टर से और घर का रास्ता नापने लगी बस !

थोड़ी दूर पहुंचा तो देखा..एक छोटा बच्चा अपने पिता के साथ मेरे बगल वाली सीट पर बैठा...वो कभी मुझे देखे कभी मेरी मछली को....मैंने पूछा पकड़ोगे..उसने सर हिलाया हाँ में...और मैंने उसके हाथ में बोतल दे दी..उसके चेहरे में खुशी देखकर मुझे भी हर्ष हुआ........उसके पिता ने पूछा बेटे कहा से लाये और कितने की ? मैंने सब कुछ बताया.....फिर मैंने कहा कि ये भूखे हैं और कुछ खिला नहीं पाया बोतल खोलूं तो कही मन ना जाये...और मुझे जानकारी भी नहीं थी क्या खाते हैं....छोटा मासूम बोला इनके लिए दाने आते हैं....हमारे घर में हैं...दाने? जी हाँ उसने कहा हमारे घर में भी मछली हैं...बड़ी बड़ी....एक्वेरियम कि बात कर रहा था वो....मैंने कहा गुड ! अच है...तो तुम जानते हो....?उसके पिता ने कहा बेटा इसके लिए चारा होता है...और बाज़ार में मिलता है....ओह्ह ! मैंने कहा मुझे तो जानकारी नहीं है....और नदी में ऐसी ही रहते हैं यहाँ पर भी ऐसे ही रहती होगी....या फिर रोटी चांवल खाती होगी.वो दे देंगे.....मैंने देखा बच्चे ने हाथ में बड़े प्यार से बोतल पकड़ रखी थी...मैंने कहा छोटे आप रख लो इसे, आप जानते भी हैं पालना और खिलाना ! मुझे जानकारी भी ,कहीं मर जाएँगी ! आपके पास सुरक्षित तो रहेंगी. उसके पिता ने फटक से मना किया, लेकिन मैंने कहा अंकल एक ही बात है , बच्चा तो खुश रहेगा ...मगर वादा कीजिये? आप जिन्दा रखेंगे और सेफ रखेंगे और भूखा नहीं रखेंगे...मेरी मछली को....उन्हूने कहा नहीं रखेंगे.....मेरे घर में दो एक्वेरियम पहले से हैं ,आप चिंता न करें ! थोड़ी देर बाद उनका बस स्टॉप आ आया और वो दोनू उतर गए...मेरी मछली लेकर....!छोटा बच्चा मुझे हाथ से टा-टा करता रहा ...और बस आगे चलती रही.....

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

उत्तराखंड सरकार के तीन वर्ष !

उत्तराखंड सरकार के तीन वर्ष पुरे हुए ! अच्छा लगा!चलो किसी सरकार के आधे से ज्यादा तीन साल पूरे तो हुए?वरना जमाना ऐसा है कौन किसका साथ देता है? पता नहीं कौन नेता किधर लुढ़क जाये....?वैसे भी मिली जुली हुकूमत का जमाना है....पता नहीं कब किसकी लुटिया डूब जाये?पता नहीं चल पाता है....पिछले दिनों मैंने अखबार में बड़े-बड़े फुल पेज के सरकारी रंगीन इश्तिहार देखे, लेकिन अभी शंका हे कि सरकार अगले दो साल में क्या अच्छा कर पायेगी..?

देखा जाये तो अभी तक विकास के नाम पर राज्य को बेचा ही है, राज्य से कुछ न कुछ लिया ही है, दिया कुछ नहीं ...बड़े बड़े उद्योग घराने आये,उद्योगपति आये लेकिन सब फोटो खिंचवा कर और प्रेस कांफेरेंस कर बड़ी-बड़ी बाते कर चले गए....हुआ कुछ नहीं , रोजगार आम आदमी कुछ नहीं मिला...अभी भी लोग दिल्ली या अन्य महानगरों में भाग रहे हैं...जबकि शिक्षित प्रदेश में गिना जाने लगा है...सबसे अच्छे स्कूल उत्तराखंड में है, इनमे शेरवूड,सैंट जोसेफ, विरला विद्या निकेतन , दून, डोन बोस्को और ना जाने कितने...लेकिन राज्य के नहीं बल्कि बाहर के आसामी लोगों के बच्चे इनमे पढ़ते हैं....राज्य का आम आदमी का बच्चा क्योँ नहीं या फिर कुछ तो बच्चे पढ़े....क्या वे नहीं पढ़ा सकते यहाँ पर...लेकिन ऐसा नहीं ऐसा क्योँ ?

कहते हैं जब ब्यापारी आता है तो उसका चेहरा बड़ा मासूम होता है, और बड़ी बड़ी बातें करता है लुभावनी !लेकिन सिर्फ अपने नफे के लिए. लोगों का खून चूस कर वे अपना काम करते हैं...उदाहरण ईस्ट इंडिया कंपनी से लेकर आज तक सब उसी ढर्रे पर चल रहे हैं....कर्मचारी को नौकरी ठेके दार के द्वारा दी जाती है कंपनी के द्वारा नहीं..राज्य में हेवी-वेट नेता भी हुए लेकिन ज्यादा कुछ नहीं कर पाए...मैदान में रह गए, पहाड़ में नहीं घुस सके न घुसहा सके उधोगपति को..तिवारी जी जैसे लोगों ने कुछ किया लेकिन रसिक पर्वृति और अपने खाषम खास को पुरुस्कृत करना [सरकारी और गैर सरकारी] उनकी खास अदा रही है....और जिंदगी भर उन्हूने हरीश रावत जैसे नेता को कमजोर बनाने में अपना राजनीतिक टार्गेट बनाये रखा, जिस कारन उन्हें अपने अंतिम दिनों थू-थू जैसे नौबत सहनी पड़ी....चाहे वो नैनीताल हो हल्द्वानी हो या फिर आंध्र प्रदेश...., और नौकरशाहों को जिस तरीके से थोपा गया वो राज्य के लोग आज तक पचा तक नहीं पाए...नहीं तो एक समय था जब यही तिवारी जी प्रधान मंत्री पद के दावेदार थे..शुक्र है ऐसा नहीं हुआ वरना इंडियन सार्कोज़ी साबित होते ......दूसरी तरफ खंडूरी जी सेना के अधिकारी रहे हैं, लेकिन उन्हें भी पता नहीं देहरादून आते आते पता नहीं क्या हो गया....की फैसला लेने में देरी क्योँ कर गए....जो सेना में तुरंत फैसले लेता था यहाँ आ कर वह भी चुप हो गए...और कुछ फैसले लिए भी तो वो नौकरशाह या अन्य लोगों को पसंद नहीं आया..कुल मिलाकर पहाड़ और मैदान में अंतर ही नहीं समझ पाए...भगत सिंह कोश्यारी जी के लिए मुश्किल यह रही की संघ को भी देखना हुआ और और संघ और पार्टी के उन लोगों को भी देखना था और जो जनरल खंडूरी को पसंद नहीं करते थे....और आंखिर में लुटिया डूब ही गई.....सदन में पहुंचे तब वे शांत हुए....अब देखना है बर्तमान मुख्यमंत्री डॉक्टर निशंक क्या कर पाते हैं.....फिर चाहे वो हिंदुजा को लाये, टाटा को लायें या फिर अन्य उधोगपति को...या फिर उर्जा प्रदेश,हरित प्रदेश,देव भूमि या अन्य प्रदेश नारा दें.....वहीं दूसरी तरफ संत समाज भी नाराज लग रहा है निशंक से...,मगर एक बात अच्छी हुई वह है, कुम्भ का होना...अब देखना यह है अब आने वाले सालों में क्या कर पाते हैं....क्यूंकि अंतिम सालों को जनता याद रखती है....और चुनाव से पहले क्या हुआ क्या नहीं इसका लेखा जोखा अखबारों में रंगीन इस्तहार से नहीं बल्कि जनता अपनी आँखों के इस्तहार से तय करेगी...अब असली परीक्षा की घडी निशंक की होगी ?

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

आंखिर निकाह कर ही डाला ?

आंखिर शादी हो ही गई, 15 अप्रेल को होनी थी, लेकिन तीन चार दिन पहले १२ अप्रेल को ही निपटा डाली . जल्दी निकाह के कारण कई हैं, रहे भी होंगे, हो भी सकते थे, और थे भी, हैं भी और आगे रहेंगे भी.......कुल मिलाकर बला मोल ले ही ली !मियाँ ने पैसे और खूबसूरती के लालच में अपने को हलाल तो करवा ही डाला. अब आगे टेनिस की बाल की तरह इधर - उधर पटकते नज़र आयेंगे.....बाकी इनकी सलामती की दुआ एक बार हम भी कर ही देंगे....

अब रह गया पार्ट नंबर दो ! यहाँ से आंखिर रुखसत हो ही गई इंडिया की सानिया मिर्ज़ा . अब पाकिस्तान में दावतों का दौर शुरू होगा. सुना है प्रधानमंत्री भी गिफ्ट भेज रहे हैं, सट्टेबाज खिलाड़ी और हिन्दुस्तानी खिलाड़ी को? खैर निकाह हो गया अल्लाह का शुक्र है ! शांति तो हुई, मीडिया भी अपने ठिकाने में आया, नहीं तो उन्ही के ठिकाने पर टिक गया था...जैसे शादी इनकी नहीं मीडिया की हो रही हो...खैर अब थोडा सकूं तो रहेगा...अब भूचाल पकिस्तान में आएगा, जब तक सानिया और शोएब वहां रहेंगे तब तक मीडिया उनका पीछा नहीं छोड़ेगा, बाकी आवाम अपनी हरकत तो करेगी ही....फिलहाल वहां पर तालिबान का बम फूटे या अमेरिका का ड्रोन हमला हो.....यही चलने की उम्मीद है...मगर एक बात सबको माननी पड़ेगी ताक आंखिर मीडिया नहीं होता तो नहीं हो पाता.

लाल जोड़े में दुल्हन हमेसा सुन्दर लग ही जाती है, सानिया के मामले में भी ऐसा ही है.....घूंघट लम्बा था इसलिए सच कहू तो पहचान में ही नहीं आ रही थी....चेहरा घूंघट में छुप के रह गया.....मगर मीडिया में जिस तरह से उठा - पटक वाला खेल हुआ, और जितने जूठ और सच के नारे लगाए गए...ऐसा हुआ ऐसा नहीं हुआ.....सब को देखते हुए लगता है आगे बच्चे होंगे तो भी सायद मीडिया का रोल बहुत महत्वपूर्ण होगा.................?बस ये देखने की बात है कि कौन कितना झूठ बोलता है हमारा मतलब है..........?

बस देखते रहिये आगे-आगे होता है क्या?

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

पैसे की शादी....

मामला देखा जाये तो सब पैसे का लगता है? दिल के बजाय इस स्टोरी में दिमाग की खपत ज्यादा हुई है...ऐसा लगता है! खैर अचानक शादी हो रही है करके, खबर आई लेकिन वो भी फुस्स ! जरुरी कागजात न होने से वो भी नहीं हो सकी....कुल मिलाकर 'फर्स्ट अटेम्प्ट फ़ैल' !और जो तलाक दिया था उसमे भी पिता का नाम कुछ और लिख डाला...लो कर लो जो करना है..आंखिर हीरो जो है....मनमानी तो चलेगी हीरो की न?अच्छी बात है किसी की शादी होना....लेकिन जिस फजीहत और कश-म-कश के दरम्यान ऐसा हुआ वो भी एक कहानी है और सब जानते हैं क्या हुआ क्या नहीं ....लेकिन इस सब में एक बात तो तय है वो है सानिया जितनी बड़ी स्टार रही है इस देश की और टेनिस की उस सोच में जरुर कमी आई है और देश में उनकी टीआरपी कम हुई है..जितने चाहने वाले थे उतने ही इस मसले से खफा होने वाले भी हो गए हैं.....दूसरा पहलु सबसे सुखद जो रहा वो था उस लड़की आयशा सिदिकी का जो पहली पत्नी थी....जैसा वो दावा कर रही थी ...उसे उसका हक़ मिल गया...और जो बाद में कबूल भी किया शादी का और मजबूरन तलाक भी देना पड़ा...इससे एक बात तो देखने को मिली लोग कैसे कैसे साफ़ जूठ बोल जाते हैं....चाहे उनका जीजा क्योँ ना हो जो लम्बी लम्बी प्रेस कांफेरेंस कर सब जूठा होने का दावा थोक रहा था.....वो भी चुप है....दुबक के रह गया......अब क्या हुआ मियां जी....?खैर जो हुआ अच्छा हुआ...शादी कितनी चल पायेगी वक्त बतायेगा...हमारी ओर से शुभ कामना दोनों को!.....लेकिन मीडिया कितना खूंखार बना रहता है, ये वक्त वक्त बतायेगा....फिलहाल पाकिस्तान हो या फिर इंडिया दोनू ही देश का मीडिया बौखलाए बैठा है इन दोनू से ....और अभी तो उस 'एक्स मिर्ज़ा साहब ' की जबान खुलनी बांकी है.....जो कभी मिस मिर्ज़ा के करीबी हुआ करते थे.......?

स्टोरी अच्छी है हीरो की दूसरी शादी हो रही है, हेरोइन भी पहली सगाई तोडकर प्रेमी के साथ निकाह करने जा रही है,विलेन भी है....लेकिन इसमें विलेन कोई पुरुष नहीं बल्कि एक महिला है...जो शहर की रसूखदार परिवार से ताल्लुक रखती है और एक अच्छे अंतररास्ट्रीय पाठशाला में शिक्षिका थी....जो हीरो की पहली पत्नी भी थी, और उसने हीरो से रोप पीट कर मीडिया को सहारा बनाकर तलाक ले डाला वो भी तब जब उसे उसका पति नहीं मिला, जो सीमा पार रहता था और गोरों के खेल बाल-बैट [क्रिकेट]का सट्टेबाज खिलाड़ी भी है..उसके अलावा चोट खाए हुए और भी कई किरदार हैं! एक साहब तो विदेश पढ़ाई करने चल दिए....एक हीरो का ही अपना जीजा बताया जा रहा है....जो पता नहीं क्या क्या बोलता फिर रहा है...और बोलते-बोलते इंडिया पहुच गया...उसके अलावा सीमा पार भी महिलायें भी हैं जो हीरो के करीबी मानी जाती थी...वो भी छाती पीट रही है...बाकी पता नहीं कितने पढ़ाई छोड़ चले गए हैं...कुछ दुआ में मस्त हैं तो कुछ दारू के साथ ब्यस्त हैं...कुल मिलाकर कहानी अच्छी है....अब देखना यह है की हीरो और हेरोइन की शादी कब तक हो पाती है और फिर हीरो हेरोइन को अपने वतन ले जाता है या फिर किसी दुसरे मुल्क में...जहाँ वो खेल के शहंशाह बन कर खूब 'रियाल' कमा सकें....

अब देखते रहिये आगे-आगे होता है क्या ?

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