शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

उत्तराखंड सरकार के तीन वर्ष !

उत्तराखंड सरकार के तीन वर्ष पुरे हुए ! अच्छा लगा!चलो किसी सरकार के आधे से ज्यादा तीन साल पूरे तो हुए?वरना जमाना ऐसा है कौन किसका साथ देता है? पता नहीं कौन नेता किधर लुढ़क जाये....?वैसे भी मिली जुली हुकूमत का जमाना है....पता नहीं कब किसकी लुटिया डूब जाये?पता नहीं चल पाता है....पिछले दिनों मैंने अखबार में बड़े-बड़े फुल पेज के सरकारी रंगीन इश्तिहार देखे, लेकिन अभी शंका हे कि सरकार अगले दो साल में क्या अच्छा कर पायेगी..?

देखा जाये तो अभी तक विकास के नाम पर राज्य को बेचा ही है, राज्य से कुछ न कुछ लिया ही है, दिया कुछ नहीं ...बड़े बड़े उद्योग घराने आये,उद्योगपति आये लेकिन सब फोटो खिंचवा कर और प्रेस कांफेरेंस कर बड़ी-बड़ी बाते कर चले गए....हुआ कुछ नहीं , रोजगार आम आदमी कुछ नहीं मिला...अभी भी लोग दिल्ली या अन्य महानगरों में भाग रहे हैं...जबकि शिक्षित प्रदेश में गिना जाने लगा है...सबसे अच्छे स्कूल उत्तराखंड में है, इनमे शेरवूड,सैंट जोसेफ, विरला विद्या निकेतन , दून, डोन बोस्को और ना जाने कितने...लेकिन राज्य के नहीं बल्कि बाहर के आसामी लोगों के बच्चे इनमे पढ़ते हैं....राज्य का आम आदमी का बच्चा क्योँ नहीं या फिर कुछ तो बच्चे पढ़े....क्या वे नहीं पढ़ा सकते यहाँ पर...लेकिन ऐसा नहीं ऐसा क्योँ ?

कहते हैं जब ब्यापारी आता है तो उसका चेहरा बड़ा मासूम होता है, और बड़ी बड़ी बातें करता है लुभावनी !लेकिन सिर्फ अपने नफे के लिए. लोगों का खून चूस कर वे अपना काम करते हैं...उदाहरण ईस्ट इंडिया कंपनी से लेकर आज तक सब उसी ढर्रे पर चल रहे हैं....कर्मचारी को नौकरी ठेके दार के द्वारा दी जाती है कंपनी के द्वारा नहीं..राज्य में हेवी-वेट नेता भी हुए लेकिन ज्यादा कुछ नहीं कर पाए...मैदान में रह गए, पहाड़ में नहीं घुस सके न घुसहा सके उधोगपति को..तिवारी जी जैसे लोगों ने कुछ किया लेकिन रसिक पर्वृति और अपने खाषम खास को पुरुस्कृत करना [सरकारी और गैर सरकारी] उनकी खास अदा रही है....और जिंदगी भर उन्हूने हरीश रावत जैसे नेता को कमजोर बनाने में अपना राजनीतिक टार्गेट बनाये रखा, जिस कारन उन्हें अपने अंतिम दिनों थू-थू जैसे नौबत सहनी पड़ी....चाहे वो नैनीताल हो हल्द्वानी हो या फिर आंध्र प्रदेश...., और नौकरशाहों को जिस तरीके से थोपा गया वो राज्य के लोग आज तक पचा तक नहीं पाए...नहीं तो एक समय था जब यही तिवारी जी प्रधान मंत्री पद के दावेदार थे..शुक्र है ऐसा नहीं हुआ वरना इंडियन सार्कोज़ी साबित होते ......दूसरी तरफ खंडूरी जी सेना के अधिकारी रहे हैं, लेकिन उन्हें भी पता नहीं देहरादून आते आते पता नहीं क्या हो गया....की फैसला लेने में देरी क्योँ कर गए....जो सेना में तुरंत फैसले लेता था यहाँ आ कर वह भी चुप हो गए...और कुछ फैसले लिए भी तो वो नौकरशाह या अन्य लोगों को पसंद नहीं आया..कुल मिलाकर पहाड़ और मैदान में अंतर ही नहीं समझ पाए...भगत सिंह कोश्यारी जी के लिए मुश्किल यह रही की संघ को भी देखना हुआ और और संघ और पार्टी के उन लोगों को भी देखना था और जो जनरल खंडूरी को पसंद नहीं करते थे....और आंखिर में लुटिया डूब ही गई.....सदन में पहुंचे तब वे शांत हुए....अब देखना है बर्तमान मुख्यमंत्री डॉक्टर निशंक क्या कर पाते हैं.....फिर चाहे वो हिंदुजा को लाये, टाटा को लायें या फिर अन्य उधोगपति को...या फिर उर्जा प्रदेश,हरित प्रदेश,देव भूमि या अन्य प्रदेश नारा दें.....वहीं दूसरी तरफ संत समाज भी नाराज लग रहा है निशंक से...,मगर एक बात अच्छी हुई वह है, कुम्भ का होना...अब देखना यह है अब आने वाले सालों में क्या कर पाते हैं....क्यूंकि अंतिम सालों को जनता याद रखती है....और चुनाव से पहले क्या हुआ क्या नहीं इसका लेखा जोखा अखबारों में रंगीन इस्तहार से नहीं बल्कि जनता अपनी आँखों के इस्तहार से तय करेगी...अब असली परीक्षा की घडी निशंक की होगी ?

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