सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है
ये ज़मी दूर तक हमारी है
मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ
जिससे यारी है उससे यारी है
हम जिसे जी रहे हैं वो लम्हा
हर गुज़िश्ता सदी पे भारी है
मैं तो अब उससे दूर हूँ शायद
जिस इमारत पे संगबारी है
नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने
अब समन्दर की ज़िम्मेदारी है
फ़लसफ़ा है हयात का मुश्किल
वैसे मज़मून इख्तियारी है
रेत के घर तो बह गए नज़मी
बारिशों का खुलूस जारी है
{अख्तर नाजमी की रचना}
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