शनिवार, 29 मई 2010

आंसुओं के नमक में जो बात है

दिल्ली शहर की रोशनी को इकट्ठा किया था

फिर भी मेरा आशियान सज़ा नहीं

तूफान को फिर भी वो सह गया था

पर हवाओं से बिल्कुल भी बचा नहीं

शाम तो चमक रही है रंगों से

मगर रात के मंज़र का पता नहीं

लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा है

फिर भी अकेलेपन की कोई दवा नहीं

बहुत मशक्कत है इस ज़िंदगी के खेल में

जो उलझता है वो निकलता नहीं

जी तो लूंगा मैं इस बेबसी में भी

मगर मेरी सांसों की इसमें रज़ा नहीं

आंसुओं के नमक में जो बात है

हंसी की मिश्री में वो मज़ा नहीं

खुली हवा में घूमते हैं हम सब पर

घुटन से कोई भी निकला नहीं

रहगुज़र की तलाश में भटकते रहे हैं

पर सुकून को कोई भी ढूंढता नहीं

मुमकिन है दुनिया में लोगों से मिलना

पर खुद से मैं कभी मिला नहीं
राजेश 'प्रतिबिंब' दरियागंज,

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