दिल्ली शहर की रोशनी को इकट्ठा किया था
फिर भी मेरा आशियान सज़ा नहीं
तूफान को फिर भी वो सह गया था
पर हवाओं से बिल्कुल भी बचा नहीं
शाम तो चमक रही है रंगों से
मगर रात के मंज़र का पता नहीं
लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा है
फिर भी अकेलेपन की कोई दवा नहीं
बहुत मशक्कत है इस ज़िंदगी के खेल में
जो उलझता है वो निकलता नहीं
जी तो लूंगा मैं इस बेबसी में भी
मगर मेरी सांसों की इसमें रज़ा नहीं
आंसुओं के नमक में जो बात है
हंसी की मिश्री में वो मज़ा नहीं
खुली हवा में घूमते हैं हम सब पर
घुटन से कोई भी निकला नहीं
रहगुज़र की तलाश में भटकते रहे हैं
पर सुकून को कोई भी ढूंढता नहीं
मुमकिन है दुनिया में लोगों से मिलना
पर खुद से मैं कभी मिला नहीं
राजेश 'प्रतिबिंब' दरियागंज,
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